कन्नड़
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कन्नड या कन्नडा (ಕನ್ನಡ) भारत केरो कर्नाटक राज्य मँ बोललो जायवाली भाषा आरू कर्नाटक राज्य केरो राजभाषा छेकै। यह भारत की उन २२ भाषाओं में से एक है जो भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में साम्मिलित हैं। यह भारत की सबसे अधिक प्रयोग की जाने वाली भाषाओं में से एक है। ४.५० करोड़ लोग कन्नड भाषा प्रयोग करते हैं। एन्कार्टा के अनुसार, विश्व की सर्वाधिक बोली जाने वाली ३० भाषाओं की सूची में कन्नड २७वें स्थान पर आती है। यह द्रविड़ भाषा-परिवार में आती है पर इसमें संस्कृत के भी बहुत से शब्द हैं। कन्नडा भाषी लोग इसको 'सिरिगन्नड' कहते हैं। कन्नडा भाषा का अस्तित्व कोई 2500 वर्ष पूर्व से है तथा कन्नडा लिपि का प्रयोग कोई 1900 वर्ष से हो रहा है। कन्नड अन्य द्रविड़ भाषाओं की तरह है और तेलुगु, तमिल और मलयालम इस भाषा से मिलली-जुलती हैं। कन्नडा संस्कृत भाषा से बहुत प्रभावित है और संस्कृत के बहुत सारे शब्द कन्नड में भी उसी अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। भारत सरकार ने कन्नड को भी भारत की एक शास्त्रीय भाषा (क्लासीकल लैंगवेज) घोषित किया है।
'कन्नड' आरू 'कर्नाटक' शब्दो के व्युत्पत्ति
[संपादन | स्रोत सम्पादित करौ]कन्नड तथा कर्नाटक शब्दों की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न मत हैं। यदि किसी विद्वान का यह मत है कि "कंरिदुअनाडु" अर्थात् "काली मिट्टी का देश" से कन्नड शब्द बना है तो दूसरे विद्वान के अनुसार "कपितु नाडु" अर्थात् "सुगन्धित देश" से "कन्नाडु" और "कन्नाडु" से "कन्नड" की व्युत्पत्ति हुई है। कन्नडा साहित्य के इतिहासकार आर॰ नरसिंहाचार ने इस मत को स्वीकार किया है। कुछ वैयाकरणों का कथन है कि कन्नडा संस्कृत शब्द "कर्नाट" का तद्भव रूप है। यह भी कहा जाता है कि "कर्णयो अटति इति कर्नाटका" अर्थात जो कानों में गूँजता है वह कर्नाटका है।
प्राचीन ग्रन्थों में कन्नडा, कर्नाट, कर्नाटका शब्द समानार्थ में प्रयुक्त हुए हैं। महाभारत में कर्नाट शब्द का प्रयोग अनेक बार हुआ है (कर्नाटकाश्च कुटाश्च पद्मजाला: सतीनरा:, सभापर्व, 78, 94; कर्नाटका महिषिका विकल्पा मूषकास्तथा, भीष्मपर्व 58–59)। दूसरी शताब्दी में लिखे हुए तमिल "शिलप्पदिकारम्" नामक काव्य में कन्नडा भाषा बोलनेवालों का नाम "करुनाडर" बताया गया है। वराहमिहिर के बृहत्संहिता, सोमदेव के कथासरित्सागर, गुणाढ्य की पैशाची "बृहत्कथा" आदि ग्रंथों में भी कर्नाट शब्द का बराबर उल्लेख मिलता है।
'कर्नाटका' शब्द अंग्रेजी में विकृत होकर कर्नाटिक (Karnatic) अथवा केनरा (Canara), फिर केनरा से केनारीज़ (Canarese) बन गया है। उत्तरी भारत की हिंदी तथा अन्य भाषाओं में कन्नडा शब्द के लिए कनाडी, कन्नडाी, केनारा, कनारी का प्रयोग मिलता है।
आजकल कर्नाटका तथा कन्नडा शब्दों का निश्चित अर्थ में प्रयोग होता है – कर्नाटका प्रदेश का नाम है और "कन्नड" भाषा का।
कन्नड भाषा आरू लिपि
[संपादन | स्रोत सम्पादित करौ]द्रविड़ भाषा परिवार की भाषाएँ पंचद्राविड़ भाषाएँ कहलाती हैं। किसी समय इन पंचद्राविड भाषाओं में कन्नड, तमिल, तेलुगु, गुजराती तथा मराठी भाषाएँ सम्मिलित थीं। किन्तु आजकल पंचद्राविड़ भाषाओं के अन्तर्गत कन्नड, तमिल, तेलुगु, मलयालम तथा तुलु मानी जाती हैं। वस्तुत: तुलु कन्नड की ही एक पुष्ट बोली है जो दक्षिण कन्नड जिले में बोली जाती है। तुलु के अतिरिक्त कन्नड की अन्य बोलियाँ हैं–कोडगु, तोड, कोट तथा बडग। कोडगु कुर्ग में बोली जाती है और बाकी तीनों का नीलगिरि जिले में प्रचलन है। नीलगिरि जिला तमिलनाडु राज्य के अन्तर्गत है।
रामायण-महाभारत-काल में भी कन्नड बोली जाती थी, तो भी ईसा के पूर्व कन्नड का कोई लिखित रूप नहीं मिलता। प्रारम्भिक कन्नड का लिखित रूप शिलालेखों में मिलता है। इन शिलालेखों में हल्मिडि नामक स्थान से प्राप्त शिलालेख सबसे प्राचीन है, जिसका रचनाकाल 450 ई. है। सातवीं शताब्दी में लिखे गये शिलालेखों में बादामि और श्रवण बेलगोल के शिलालेख महत्वपूर्ण हैं। प्राय: आठवीं शताब्दी के पूर्व के शिलालेखों में गद्य का ही प्रयोग हुआ है और उसके बाद के शिलालेखों में काव्यलक्षणों से युक्त पद्य के उत्तम नमूने प्राप्त होते हैं। इन शिलालेखों की भाषा जहाँ सुगठित तथा प्रौढ़ है वहाँ उसपर संस्कृत का गहरा प्रभाव दिखाई देता है। इस प्रकार यद्यपि आठवी शताब्दी तक के शिलालेखों के आधार पर कन्नड में गद्य-पद्य-रचना का प्रमाण मिलता है तो भी कन्नड के उपलब्ध सर्वप्रथम ग्रन्थ का नाम "कविराजमार्ग" के उपरान्त कन्नड में ग्रन्थनिर्माण का कार्य उत्तरोत्तर बढ़ा और भाषा निरन्तर विकसित होती गई। कन्नडा भाषा के विकासक्रम की चार अवस्थाएँ मानी गयी हैं। जो इस प्रकार है :
- अतिप्राचीन कन्नड (आठवीं शताब्दी के अन्त तक की अवस्था),
- हळ कन्नड (प्राचीन कन्नड) (९वीं शताब्दी के आरम्भ से 12वीं शताब्दी के मध्य-काल तक की अवस्था),
- नडु गन्नड (मध्ययुगीन कन्नडा) (१२वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक की अवस्था) और
- होस गन्नड (आधुनिक कन्नडा) (१९वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से अब तक की अवस्था)।
चारों द्राविड भाषाओं की अपनी पृथक-पृथक लिपियाँ हैं। डॉ॰ एम॰एच॰ कृष्ण के अनुसार इन चारों लिपियों का विकास प्राचीन अंशकालीन ब्राह्मी लिपि की दक्षिणी शाखा से हुआ है। बनावट की दृष्टि से कन्नड और तेलुगु में तथा तमिल और मलयालम में साम्य है। 13वीं शताब्दी के पूर्व लिखे गये तेलुगु शिलालेखों के आधार पर यह बताया जाता है कि प्राचीन काल में तेलुगु और कन्नड की लिपियाँ एक ही थी। वर्तमान कन्नड की लिपि बनावट की दृष्टि से देवनागरी लिपि से भिन्न दिखायी देती हैं, किन्तु दोनों के ध्वनिसमूह में अधिक अन्तर नहीं है। अन्तर इतना ही है कि कन्नड में स्वरों के अन्तर्गत "ए" और "ओ" के ह्रस्व रूप तथा व्यंजनों के अन्तर्गत वत्स्य "ल" के साथ-साथ मूर्धन्य "ल" वर्ण भी पाये जाते हैं। प्राचीन कन्नड में "र" और "ळ" प्रत्येक के एक-एक मूर्धन्य रूप का प्रचलन था, किन्तु आधुनिक कन्नड में इन दोनों वर्णो का प्रयोग लुप्त हो गया है। बाकी ध्वनिसमूह संस्कृत के समान है। कन्नड की वर्णमाला में कुल 47 वर्ण हैं। आजकल इनकी संख्या बावन तक बढ़ा दी गयी है।
ई भी देखौ
[संपादन | स्रोत सम्पादित करौ]बाहरी कड़ी
[संपादन | स्रोत सम्पादित करौ]- कन्नडा-हिन्दी शब्दकोश (हिन्दी विक्षनरी)